विडंबनाओ से भरा आज का भारत


































विडंबनाओ से भरा आज का भारत


            - नेहा दाभाडे


इस सरकार (की दूसरी पारी के पहले 100 दिनों) ने देश में विकास, विश्वास और बड़े परिवर्तनों का सूत्रपात किया है,” यह दावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल में किया. कितने लोग इससे सहमत होंगे, यह कहना कठिन है.


भारत इस समय एक दोराहे पर खड़ा दिख रहा है. एक और असुरक्षा, भय और चिंता का वातावरण है तो दूसरी ओर है राष्ट्रवादी जूनून, एक नया आत्मविश्वास और राजनीतिक नेतृत्व के त्वरित और कड़े निर्णय लेने की क्षमता पर गर्व का भाव. ऐसा लग रहा है जैसे कश्मीर से धारा 370 का हटाया जाना कोई बहुत बड़ी जीत या उपलब्धि हो. यह विजय भाव विडम्बनापूर्ण ही कहा जा सकता है क्योंकि राज्य में लगभग एक महीने से सब कुछ बंद है. इस बीच, एक युवक की पेलेट लगने से मौत और सेना द्वारा 11 साल के बच्चे को हिरासत में लेने जैसी घटनाएं वहां हो रहीं हैं. देश के अन्य हिस्सों में रह रहे कश्मीरी, अपने परिवारों से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं. जहाँ वे रह रहे हैं, वहां उन्हें नफरत की निगाहों से देखा जा रहा है. गायक आदिल गरोजी को हाल में मुंबई में अपना अपार्टमेंट खाली करने को कहा गया.


नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) की अंतिम रपट के प्रकाशन के बाद, असम के लगभग 19 लाख नागरिकों पर राज्य-विहीन हो जाने का खतरा मंडरा रहा है. यह पूरी प्रक्रिया ही दोषपूर्ण थी. सरकार, राज्य में दस और नजरबंदी शिविर बनाने की तैयारी कर रही है. पहले से चल रहे शिविरों में कई मौतें हो चुकी हैं और एनआरसी से बाहर कर दिए गए अनेक लोग आत्महत्या कर चुके हैं. एनआरसी से जिन लोगों के नाम गायब हैं, उनमें हिन्दू, राज्य के मूल निवासी और मुसलमान शामिल हैं. इस बहुत खर्चीली कवायद से भाजपा सहित कोई खुश नहीं है. भाजपा, नागरिकता संशोधन विधेयक को पारित करने पर जोर दे रही है ताकि हिन्दू प्रवासियों को नागरिकता मिलना आसान हो सके.


इस बीच, एक भीषण आर्थिक संकट ने देश को जकड़ लिया है. अर्थव्यवस्था थम सी गई है और ऑटोमोबाइल व कृषि क्षेत्र गहरे संकट में हैं. यद्यपि आर्थिक संकट के लिये कई कारकों को दोषी बताया जा रहा है परंतु आर्थिक विशेषज्ञों का एक बड़ा तबका नोटबंदी को इसके लिए ज़िम्मेदार बता रहा है. नोटबंदी ने लघु उद्योगों को भारी नुकसान पहुँचाया और बेरोजगारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि की. हाल में सरकार ने रिज़र्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ रुपये लिए हैं.  सरकार ने यह नहीं बताया है कि वह इस भारी धनराशि का क्या उपयोग करना चाहती है.


आज के हालात को हम किस रूप से देखें? सरकार गंभीरता से सोच-विचार किये बगैर आक्रामक निर्णय ले रही है. संयम को कमजोरी माना जा रहा है और संवैधानिक प्रतिबंधों का पालन करने को साहस का अभाव. इस तरह के मनमानीपूर्ण निर्णयों का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो भविष्य ही बताएगा.


आज तो ऐसा लगता है कि भारत में प्रजातान्त्रिक संस्थाए ढह रही हैं और संवैधानिक प्रावधानों को नजरअंदाज किया जा रहा है. नेतृत्व के बहुत से निर्णयों से बहुसंख्यकवाद की बू आ रही है. इस बहुसंख्यकवाद में ना तो व्यक्तियों के आधिकारों का सम्मान है और ना ही विविधता का.


बहुसंख्यकवाद, बल प्रयोग को औचित्यपूर्ण मानता है और पूर्वाग्रहों व नफरत की खाद पर फलता-फूलता है. आज हममे से ऐसे कितने लोग हैं जो किसी दलित या मुसलमान की लिंचिंग की खबर सुनकर विचलित होते हैं? क्या ऐसी घटनाएं हमे आम और सामान्य नहीं लगने लगीं हैं?


ये स्थितियां निश्चित रूप से चिंताजनक और निराशाजनक हैं. तो क्या हम हताश हो जाएं? क्या हम यह मान लें कि निराशा की अँधेरी सुरंग में आशा की कोई किरण नहीं है? क्या इस देश ने प्रजातंत्र को अलविदा कह दिया है? इन प्रश्नों का उत्तर स्पष्ट नहीं है.


देश में प्रजातंत्र, विविधता के लिए सम्मान, सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता मरी नहीं हैं. इसका सुबूत है कई छोटी-छोटी घटनाएं.


सरकार की नीतियों और निर्णयों और पहचान की राजनीति के चलते समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो रहा है. नफरत, ऊंच-नीच और श्रेष्ठताभाव के बोलबाले के कारण भारत के विभिन्न समुदायों के बीच सदियों से चले आ रहे सौहार्द्रपूर्ण रिश्तों में ज़हर घुल गया है.


इस सबके बावजूद, असम के नौगाँव में हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों ने पुरानी गुदाम मस्जिद की मीनार को संरक्षित करने के लिए स्थानीय अधिकारियों से संपर्क किया. हाईवे को चौड़ा करने के लिए मस्जिद को गिराया जाना था. मीनार को उसके मूल स्थान से 70 फीट दूर खड़ा कर दिया गया. वह सुरक्षित है.  


मुज्जफरनगर के इलेक्ट्रीशियन, मोहम्मद महमूद, 77, कुम्भ मेले के प्रसिद्ध जूना अखाड़ा के टेंटों में बिजली का काम कई बरसों से देख रहे हैं. महमूद का कहना है कि टेंटों को रोशन करने से उन्हें आध्यात्मिक संतोष का अनुभव होता है और वे साधुओं से बहुत कुछ सीखते हैं. उन्हें मेला स्थल पर नमाज़ अदा करने के लिए जगह दी गयी है और उनका खाना-पीना साधुओं के साथ ही होता है.


इस तरह के उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हमारे देश में आज धार्मिक जुलूसों के रास्ते और आराधना स्थलों के बाहर बाजे बजाने जैसे मामूली मुद्दों पर सांप्रदायिक हिंसा हो जाती है. इस पृष्ठभूमि में बिहार के नालंदा जिले के मढ़ी गाँव का उदाहरण अत्यंत प्रेरणादायक है. गाँव में एक भी मुसलमान परिवार नहीं है. विभिन्न कारणों से मुसलमान अन्य स्थानों में रहने चले गए हैं. परन्तु इसके बाद भी, स्थानीय निवासी गाँव की मस्जिद की देखभाल कर रहे हैं. वे मस्जिद में सुबह-शाम प्रार्थना करते हैं और पेनड्राइव की मदद से अज़ान भी देते हैं. पवित्र अवसरों पर और किसी समस्या का सामना होने पर वे मस्जिद में प्रार्थना भी करते हैं.


मुंबई के गोवंडी में तीन साल से एक ही पंडाल में गणेश उत्सव और मुहर्रम और पांच साल से नवरात्रि और मुहर्रम मनाया जा रहा है. दोनों समुदायों के लोग एक ही माइक्रोफोन और लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करते हैं. अलग-अलग धार्मिक समुदायों के सदस्यों द्वारा एक-दूसरे की मदद करने के तो असंख्य उदाहरण हैं. मुंबई में एक मुस्लिम और एक हिन्दू महिला ने एक-दूसरे के पतियों को अपनी किडनी दान कीं.


इस तरह के उदाहरण बताते हैं कि देश में अब भी प्रेम, करुणा और शांति के पैरोकार हैं. परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम योजनाबद्ध तरीके से भड़काई जा रही हिंसा और फैलाई जा रही नफरत जो भुला दें. देश में मीडिया, पाठ्यपुस्तकें और राजनेता, साम्प्रदायिकता, घृणा, पूर्वाग्रह और भ्रम फैला रहे हैं. इसी के नतीजे में नफरत से उपजे अपराध बढ़ रहे हैं और इन अपराधों में लिप्त लोग स्वयं को कानून से परे समझ रहे हैं. इस तरह की घटनाओं से किसी भी प्रजातान्त्रिक समाज की आत्मा झुलस जानी चाहिए थी और सम्बंधित व्यक्तियों को त्वरित और कड़ी सजा मिलनी चाहिए थी. दुर्भाग्यवश, ऐसी घटनाओं की न तो पर्याप्त निंदा हो रही और ना ही उनके खिलाफ सामूहिक आवाज़ उठाई जा रही है. जो उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष लोग इस नफरत के खिलाफ बोलते हैं उन्हें ट्रोल किया जाता है और गलियां दी जातीं हैं. हिंसक राष्ट्रवाद, स्वीकार्य हो चला है.


इन हालातों में यह ज़रूरी है कि हम आम लोगों, और विशेषकर युवाओं, तक पहुंचें और एक वैकल्पिक विमर्श का प्रस्ताव करें - एक ऐसे विमर्श का जो प्रेम व विविधता के लिए सम्मान और समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के संवैधानिक मूल्यों पर आधारित हो. नागरिक समाज के कुछ सदस्यों ने इस दिशा में मुंबई और देश के अन्य स्थानों में ज़मीनी स्तर पर काम शुरू किया है. इसका एक उदहारण है मुंबई का एक संगठन - 'इंडियन मुस्लिम्स फॉर डेमोक्रेसी'. इस समूह ने मुसलमानों के बारे में मिथ्या धारणाओं और उनके बहिष्करण का मुकाबला करने के लिए मुस्लिम समुदाय किस तरह अन्य समुदायों के मिलकर प्रयास कर सकता है और किस प्रकार वह प्रजातान्त्रिक संस्थाओं और ढांचे को संरक्षित करने में अपने योगदान दे सकता है इस पर चर्चा और विचार-विमर्श का सिलसिला शुरू किया है. यह पहल समुदाय के अखलाकों के ज़रिये की जा रही है. ईद-उल-जुहा की पूर्वसंध्या पर इस संगठन ने एक अपील जारी कर मुसलमानों से कहा था कि वे इस त्यौहार को इस तरह से मनाएं जिससे उनके पड़ोसियों को कोई तकलीफ न हो. संगठन यह मानता है कि देश में मुसलमानों के साथ भेदभाव हो रहा है और उनका दानवीकरण किया जा रहा है. परन्तु इसके साथ-साथ, वह यह भी स्वीकार करता है कि मुसलमानों की कुछ परम्पराओं और विश्वासों पर पुनर्विचार किये जाने की ज़रुरत है. इस संगठन को यह अहसास भी है कि मुद्दा सिर्फ मुसलमानों के साथ भेदभाव और उन्हें बदनाम करने का नहीं हैं. यह, दरअसल, एक व्यापक प्रक्रिया का हिस्सा है जिसका अंतिम लक्ष्य प्रजातान्त्रिक सिद्धांतों और संस्थाओं को कमज़ोर करना है. और यह उन सभी नागरिकों के लिए खतरे की घंटी है जो नफरत और युद्धोन्मादी नस्लीय राष्ट्रवाद की वर्चस्ववादी विचारधारा को ख़ारिज करते हैं.


इसी तरह की पहल, मुंबई के एक अन्य समूह, 'सिटीजन्स फॉर कान्सटीट्यूशन' ने की है, जो कि ईसाई और अन्य शांतिप्रिय नागरिकों का संगठन है. इस संगठन ने मुंबई में 2 सितम्बर 2019 को 'चैलेंजिस टू अवर नेशन' विषय पर एक बैठक का आयोजन किया. इस बैठक में और अधिक एकाधिकारवादी होती जा रही सरकार और हाशियाकृत समुदायों के हिस्से में आये भय और असुरक्षा के भाव पर गहन चिंता व्यक्त की गयी. बैठक में इस बात पर भी आक्रोश व्यक्त किया गया कि संविधान और उसके प्रावधानों को परे रख, सरकार, आम लोगों को उनके अधिकारों से वंचित कर रही है. इस स्थिति से निपटने के लिए जिस कार्ययोजना का प्रस्ताव बैठक में किया गया उसमें शामिल हैं शैक्षणिक संस्थाओं में ऐसे पाठ्यक्रम लागू करना जिनसे विद्यार्थियों को अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के सम्बन्ध में व्याप्त पूर्वाग्रहों से परिचित करवाया जा सके. प्रस्ताव में व्यापक समाज में संविधान और उसमें निहित समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए अभियान चलाने की बात भी कही गयी. संविधान पर जोर दिया जाना इसलिए ज़रूरी है ताकि लोगों को यह समझाया जा सके कि शासन व्यवस्था के विभिन्न अंगों को उनकी शक्तियां और अधिकार संविधान से मिलती है ना कि किसी पद विशेष पर बैठे हुए व्यक्ति या किसी संगठन से. दूसरे, भारत जैसे प्रजातान्त्रिक और विविधतापूर्ण समाज मे, शासन में धर्म की कोई भूमिका नहीं हो सकती और तीसरे, कि संवैधानिक प्रावधानों के अधीन रहते हुए, सभी नागरिकों को अपने-अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए.


इसी तरह के अन्य प्रयासों में शामिल हैं अनहद की 'बातचीत', जिसके अंतर्गत भारतीय संस्कृति की उन उदारवादी परम्पराओं पर चर्चा की जाती है जो आज भी आम जनजीवन में जीवित हैं और जिन्हें वर्चस्वशाली विमर्शों द्वारा तोड़ने-मरोड़ने और कमज़ोर करने के प्रयास किये जा रही हैं. 'बातचीत' में सूफी और भक्ति परम्पराओं और उनके कबीर जैसे पैरोकारों पर चर्चा की जा चुकी है. साथ जी, भारत की साँझा संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका पर भी बात हो चुकी है. प्रयास यही है कि लोगों को भारत की साँझा धार्मिक परम्पराओं और संस्कृति से परिचित करवाया जाये और उन्हें यह बताया जाये कि इसका विकास सैकड़ों वर्षों में सभी समुदायों के योगदान से हुआ है. भारत में ऐसे अनेक संत-चिन्तक हुए हैं जिन्होंने यह साबित किया है कि भारत का समाज और उसकी संस्कृति, देश की मिलीजुली परम्पराओं की वाहक हैं.


कुल मिलकर, लक्ष्य यही है कि भारत की जनता को उसकी मिलीजुली संस्कृति और राष्ट्रवाद से परिचित करवाया जाये और उसे यह बताया जाए कि प्रेम, समानता और सभी को स्वीकार करना हमारी सभ्यता का हिस्सा रहा है और यह भी की यह देश हर धर्म, हर जाति और हर वर्ग के लोगों का है.


प्रसिद्ध संत-चिन्तक  बसवन्‍ना की ये पंक्तियाँ हम सब के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हो सकती हैं:


 


'दिन-रात मुझे यह न सुनने दो की किसका, किसका, है यह आदमी


मुझे सुनने दो कि, मेरा, मेरा, मेरा है यह आदमी


हे आपस में मिलने वाली नदियों के स्वामी, मुझे ऐसा महसूस होने दो कि मैं इसी घर का बेटा हूँ'


 


(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित) 


 संपादक महोदय, कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रतिष्ठित प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें                              - 


- एल. एस. हरदेनिया


 


 


  


 




































 


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